कोसल में विचारों की कमी है, संघ-भाजपा को हराना जरूरी है!

(आलेख : जवरीमल्ल पारख, संक्षिप्तिकरण : संजय पराते)

हिंदी कवि श्रीकांत वर्मा के कविता संग्रह 'मगध' में एक कविता संकलित है, ‘कोसल में विचारों की कमी है’। इस कविता की अंतिम दो पंक्तियां हैं :  कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता,/कोसल में विचारों की कमी है!’ यदि कोसल को हम भारत का लोकतंत्र समझें तो उस पर यह कविता पूरी तरह से लागू होती है। एक युद्ध चल रहा है, जनता और शासक के बीच, ग़ैरबराबरी का। युद्ध एकतरफ़ा है और किसे जीतना है, पहले से तय है। लेकिन कविता कहती है कि जीत के बावजूद ‘कोसल’ टिक नहीं सकता, क्योंकि हमारे लोकतंत्र में विचारों की सचमुच कमी है। हम आज उस मुक़ाम पर पहुंच गये हैं, जहां ‘कोसल’ यानी भारतीय लोकतंत्र के अधिक दिन तक टिकने की संभावना भी क्षीण होती जा रही है। हमारे लोकतंत्र का सबसे जीवंत ग्रंथ और हमारा पथ प्रदर्शक संविधान है और उसी पर सबसे अधिक कुठाराघात हो रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है?

हमारा अतीत और आज़ादी के संघर्ष का वैचारिक पक्ष

जब देश में आज़ादी की लड़ाई चल रही थी, तब साथ ही साथ विचारों की लड़ाई भी चल रही थी। अंग्रेज़ों द्वारा भारत को उपनिवेश बनाने से पहले तक जिसे हम भारत या भारतीय उपमहाद्वीप के रूप में जानते हैं, वह उस अर्थ में एक ‘राष्ट्र’ नहीं था, जिस अर्थ में हम पिछले लगभग दो शताब्दियों से समझ रहे हैं। आज़ादी और ग़ुलामी की संकल्पना भी वह नहीं थी, जो अंग्रेज़ों के शासन के दौरान विकसित हुई। भारत में कई सहस्राब्दियों से विभिन्न जाति (क़ौम के अर्थ में, न कि कास्ट के अर्थ में) और नस्ल के लोग आते रहे हैं और यहां पर बसते रहे हैं। उनमें से कई जातियों और नस्लों की अपनी स्वतंत्र पहचान भी ख़त्म हो चुकी है। जो पहले से बसे हुए थे, उनका नये आने वालों के साथ संघर्ष भी हुआ, लेकिन यह संघर्ष आमतौर पर शासकों के बीच हुआ। जनता का जीवन आमतौर पर इन संघर्षों से अछूता रहा। जिसे हम भारत के रूप में जानते हैं, वहां बाहर से आने वाली जातियां अपने साथ अपने रीति-रिवाज, अपनी संस्कृति, अपना धर्म, अपनी मान्यताएं, अपनी भाषा, अपनी वेशभूषा और अपना खानपान भी लेकर आयीं। इन सबका असर जो पहले से रह रहे थे, उन पर पड़ना स्वाभाविक था। लेकिन यह भी सही है कि नये आने वालों ने बहुत कुछ उनसे भी ग्रहण किया, जो पहले से रह रहे थे। धीरे-धीरे नये और पुराने एक-दूसरे से इस तरह घुलमिल गये कि आज यह बताना मुश्किल है कि जिसे हम अपनी पहचान के रूप में जानते हैं, उनमें से कितना कहां-कहां से प्राप्त हुआ है।  जो जितना बाद में आया, वे भी अपनी बची-खुची पहचानों के साथ इस धरती को ही अपनी सबसे बड़ी पहचान मानते रहे।

यूरोपीय जातियों का, विशेष रूप से अंग्रेज़ों का आना कई अर्थों में पहले आने वालों से अलग और विशिष्ट रहा है। वे यहां बसने नहीं आये थे, बल्कि यहां की संपदा को लूटने आये थे। लेकिन वे मध्ययुग में आने वाले लुटेरों से इस अर्थ में भिन्न थे कि वे अल्प समय के लिए नहीं, बल्कि लंबे समय तक यहां के लोगों को पराधीन बनाकर, उनके ऊपर शासन करके और लूट की एक ऐसी व्यवस्था क़ायम करके इस काम को करना चाहते थे कि जिन्हें वे लूट रहे थे, जिनको पराधीन बना रहे थे और जिन पर शासन कर रहे थे, वे लूटे जाकर भी, पराधीन होकर भी और शासित होकर भी यही समझें कि उन्हें पहले से एक बेहतर शासक मिला है, जो दरअसल उनका हितैषी है।  इस औपनिवेशिक सोच का असर बंकिमचंद्र से लेकर सावरकर और गोलवलकर तक में देखा जा सकता है।   यह संयोग नहीं है कि न तो सावरकर और उनकी हिंदू महासभा और न ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आज़ादी की लड़ाई में कभी भाग लिया। सावरकर ने तो अंग्रेज़ों की ओर से युद्ध लड़ने के लिए भारतीयों का आह्वान भी किया था और जगह-जगह भर्ती कैंप भी स्थापित किये थे।

अंग्रेज़ों ने यहां आकर शासन ही नहीं किया, बल्कि इतिहास, समाज और संस्कृति संबंधी अब तक की हमारी समझ को भी राजनीतिक इरादे के साथ बदलने की कोशिश की। यह काम उनसे पहले आने वाले कथित ‘हमलावरों’ ने कभी नहीं किया, क्योंकि यहां की आबोहवा उन्हें इतनी अपनी लगी कि उन्होंने इसे हमेशा-हमेशा के लिए अपना घर बना लिया। उनमें अपने से पहले रहने वालों के प्रति नफ़रत और श्रेष्ठता का भाव नहीं था। यह कहना भी सही नहीं है कि उन्होंने यहां के लोगों को जबरन मुसलमान बनाया। इस्लाम स्वीकार करने की सबसे बड़ी वजह हिंदू धर्म की वर्ण व्यवस्था थी, जो अपने ही धर्म के एक वर्ग को मनुष्य होने के अधिकारों से भी वंचित रखती थी। वर्ण व्यवस्था में शूद्रों के साथ गु़लामों से बदतर व्यवहार होता आ रहा है। इस वर्ण व्यवस्था ने ही इस्लाम के आने से पहले ही शूद्र माने जाने वाले समुदायों को हिंदू धर्म को तिलांजलि देने के लिए प्रेरित किया था। हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध, सिद्ध, नाथ आदि संप्रदायों में जाने के पीछे यही बर्बर वर्ण व्यवस्था थी।

अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध और उन्नीसवीं सदी में यूरोप बहुत बड़ी उथल-पुथल से गुज़र रहा था। इसी दौर में यूरोप में लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समानता और सामाजिक न्याय के विचार भी तेज़ी से पनप रहे थे और इन्हीं विचारों का चरम उत्कर्ष मार्क्सवाद में दिखायी दिया। ये विचार उन उपनिवेशों में भी पहुंच रहे थे, जहां के बाशिंदों को अपनी जैसी शिक्षा देकर उन्हें मानसिक रूप से अपना जैसा बनाना उनका लक्ष्य था। कुछ हद तक ऐसा हुआ भी, लेकिन उनकी इच्छा के विपरीत इसी आधुनिक शिक्षा ने जहां एक ओर भारतीयों को विज्ञान और वैज्ञानिक सिद्धांतों से परिचित कराया, तो दूसरी ओर पूंजीवाद से लेकर समाजवाद तक की विचारधाराओं से भी परिचय कराया। उन्होंने स्वतंत्रता, समानता, धर्मनिरपेक्षता, बंधुत्व जैसे विचारों के आलोक में भारत के अतीत और वर्तमान दोनों को समझने की कोशिश की।  

वर्णव्यवस्था आधारित सामाजिक संरचना ने एक ऐसी श्रेणीबद्धता स्थापित की, जिसके शिखर पर ब्राह्मण और जिसके सबसे निचले पायदान पर शूद्र और दलित थे जिन्हें उन अधिकारों से भी वंचित किया गया था, जो मनुष्य होने के कारण उन्हें सहज रूप से प्राप्त होने चाहिए थे। जो श्रम करते थे, वे सब अवर्ण या शूद्र थे। शूद्रों के श्रम से पैदा हुई संपत्ति पर स्वयं उनका अधिकार नहीं था। उन्हें किसी भी तरह की संपत्ति रखने के अधिकार से वंचित कर दिया गया था (मनुस्मृति, 10/129)। स्त्री चाहे किसी भी वर्ण की हो, उसे श्रम करना पड़ता था, इसलिए वह सदैव जन्मना शूद्र मानी गयी। शूद्र की तरह उसे भी शिक्षित होने और शास्त्र ज्ञान हासिल करने का अधिकार नहीं था। इस बर्बर और अमानवीय वर्णव्यवस्था को ईश्वर प्रदत्त कहा गया। भारत का इतिहास दरअसल इस क्रूर सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष का इतिहास भी है। चार्वाक जैसे लोकायतवादी से लेकर बौद्ध, जैन, नाथ, सिद्ध, निर्गुण पंथ आदि विभिन्न पंथों ने ब्राह्मणवादी वर्णव्यवस्था के विरुद्ध लगातार संघर्ष किया। इस लगातार चलते संघर्ष की त्रासद परिणतियां है, लेकिन यह संघर्ष कभी रुका नहीं।

अंग्रेज़ों के आने के बाद यह संघर्ष एक नये दौर में प्रविष्ट हुआ।  दुनिया में शायद ही ऐसा कोई समाज होगा, जहां पति के मरने पर स्त्री को उसके शव के साथ ज़िंदा जला दिया जाये। यदि ज़िंदा न भी जलाया जाये, तो विधवा के रूप में उसे नारकीय जीवन जीने को मजबूर किया जाये। बाल विवाह, अनमेल विवाह, बहु विवाह, सती प्रथा, वैधव्य जैसी कुप्रथाओं में कुछ भी गर्व करने लायक़ नहीं था। लेकिन विडंबना यह थी कि सदियों से सवर्ण हिंदू इन प्रथाओं पर गर्व करते आये थे। 

जाति प्रथा कम भयावह नहीं थी। मामला केवल चार वर्णों तक सीमित नहीं था।  दलित सबसे नीचे थे और ब्राह्मण सबसे ऊपर। दलितों को तो सवर्ण मनुष्य ही नहीं समझते थे। उनका स्पर्श भी उनके लिए पाप था। एक दलित की अपेक्षा गाय कहीं ज़्यादा पवित्र और पूजनीय समझी जाती रही है। जो ब्राह्मण अपने को उच्च मानते थे, वे अपने से निम्न समझने वाले ब्राह्मणों के घर भोजन करने को भी पाप समझते थे। उनसे रिश्ता क़ायम करना तो बहुत दूर की बात है। 

अठारहवीं सदी के मध्य से अंग्रेज़ों का साम्राज्य धीरे-धीरे व्यापक और मज़बूत होता गया और इसके साथ ही अंग्रेज़ी शिक्षा और शासन व्यवस्था का जाल भी फैलता गया। इसकी प्रतिक्रिया दो रूपों में सामने आयी : एक, समाज-सुधार आंदोलन द्वारा और दूसरा, आज़ादी के संघर्ष द्वारा। समाज सुधार आंदोलन का विरोध उन पुराणपंथी, ब्राह्मणवादी और पुनरुत्थानवादी तत्वों द्वारा हुआ, जो रूढ़िबद्ध परंपराओं में किसी तरह के बदलाव के पक्ष में नहीं थे। वे वर्णव्यवस्था के पक्षधर थे। मुसलमानों के प्रति रूढ़िवादी हिंदुओं की नफ़रत की एक वजह यह भी रही है कि वे यह मानते हैं कि वे गोमांस खाते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि उत्तर भारत को छोड़कर देश के बहुत से क्षेत्र में हिंदू भी गोमांस खाते रहे हैं। आरएसएस जैसे सांप्रदायिक संगठनों ने गाय के प्रति हिंदुओं की आस्था का सदैव फ़ायदा उठाया और मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा करने के लिए उन्हें उकसाने का काम किया। वे आज भी सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने के लिए गाय का इस्तेमाल करते हैं।

समाज सुधार का आंदोलन ज़्यादा व्यापक हुआ और दलितों और पिछड़ी जातियों के अपने बुद्धिजीवी और नेता उभरकर आये, जिन्होंने इन वर्गों पर गहरा प्रभाव डाला। ज्योतिबा फुले, बाबा साहब आंबेडकर और दूसरे कई बुद्धिजीवियों ने सामाजिक बदलाव में अहम भूमिका निभायी। सती प्रथा के विरोध से शुरू हुआ समाज सुधार का आंदोलन न केवल स्त्री शिक्षा, बल्कि स्त्रियों की मुक्ति के अन्य कई पक्षों से जुड़ता चला गया। इसी तरह, छुआछूत की समाप्ति की मांग से शुरू हुआ आंदोलन जातिवाद के हर रूप के उन्मूलन तक पहुंच गया था। भारत के बुद्धिजीवी वर्ग का सबसे प्रगतिशील हिस्सा आज़ादी के आंदोलन के साथ-साथ सामाजिक दृष्टि से उदारवादी और प्रगतिशील था, जो मानता था कि शासन के किसी भी मामले को धर्म, जाति, नस्ल, लिंग और भाषा के आधार पर तय नहीं किया जाना चाहिए।  उसकी कामना थी कि आज़ाद भारत एक ऐसा देश बने, जिसकी बुनियाद में स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व के मूल्य हों। इसीलिए जब भारत का संविधान बना, तो उसकी प्रस्तावना में ही वह मानवतावादी दृष्टि अपने सर्वोत्तम रूप में व्यक्त हुई।

इस संघर्ष ने प्रतिगामी ताक़तों को कमज़ोर भले ही किया हो, ख़त्म नहीं किया था। आज़ादी की पूर्व संध्या पर भी ये प्रतिगामी ताक़तें इतनी मज़बूत थी कि इसके नतीजतन देश का धर्म के आधार पर विभाजन हुआ और आज़ादी हासिल होने के थोड़े समय बाद ही महात्मा गांधी की हत्या कर दी गयी। इन दो त्रासद घटनाओं के बावजूद भारत ने वही मार्ग चुना, जिसके लिए उसने लगभग डेढ़ शताब्दी तक संघर्ष किया था और जिसे हमारे संविधान में अभिव्यक्ति मिली थी। इन प्रतिगामी ताक़तों के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष किया जाना अभी शेष था।

हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) इन प्रतिगामी ताक़तों का प्रतिनिधित्व करती थीं। महात्मा गांधी की हत्या में प्रत्यक्ष संलिप्तता के कारण हिंदू महासभा का राजनीतिक प्रभाव धीरे-धीरे ख़त्म हो गया। लेकिन 1925 में स्थापित आरएसएस जिस पर महात्मा गांधी की हत्या के बाद कुछ समय के लिए प्रतिबंध लगा था, वह एक ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक संगठन था। उसने अपनी मूल प्रेरणा नाज़ीवाद और फ़ासीवाद से ली थी। आरएसएस के सबसे बड़े विचारक समझे जाने वाले माधव सदाशिव गोलवलकर ने ‘हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा’ पुस्तक में लिखा था, ‘जर्मन नस्ल का गर्व आज चर्चा का विषय बन गया है। नस्ल तथा उसकी संस्कृति की शुद्धता बनाये रखने के लिए, देश को सामी नस्लों -यहूदियों- से स्वच्छ करके जर्मनी ने पूरी दुनिया को स्तब्ध कर दिया है। यहां नस्ल का गौरव अपने सर्वोच्च रूप में अभिव्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी दिखा दिया है कि किस तरह ऐसी नस्लों तथा संस्कृतियों का, जिनकी भिन्नताएं उनकी जड़ों तक जाती हैं, एक एकीकृत समग्रता में घुलना-मिलना लगभग असंभव ही है।यह हिंदुस्थान में हमारे लिए एक अच्छा सबक़ है कि सीखें और लाभान्वित हों’। अपनी इसी पुस्तक में गोलवलकर ने नाज़ीवाद से सबक़ लेते हुए हिंदुओं के लिए भी वैसा ही सिद्धांत पेश कर दिया। गोलवलकर स्पष्ट रूप से कहते हैं कि भारत केवल हिंदुओं का राष्ट्र् है और बाक़ी सभी धार्मिक और नस्ली समुदाय विदेशी हैं। वे भारत में रह सकते हैं, लेकिन जब वे ‘अपने विभेदों को पूरी तरह समाप्त कर दें’ और ‘ख़ुद को पूरी तरह राष्ट्रीय नस्ल में समाहित कर दें’। अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि ‘अगर वे ऐसा नहीं करते हैं, तो उन्हें राष्ट्र के रहमो-करम पर, सभी संहिताओं और परंपराओं से बंधकर केवल एक बाहरी की तरह रहना होगा, जिनको किसी अधिकार या सुविधा की तो छोड़िए, किसी विशेष संरक्षण का भी हक़ नहीं होगा’। अगर वे अपने को राष्ट्रीय नस्ल में समाहित नहीं करते हैं तो ‘जब तक राष्ट्रीय नस्ल उन्हें अनुमति दे, वे यहां उसकी दया पर रहें और राष्ट्रीय नस्ल की इच्छा पर यह देश छोड़कर चले जायें’।

स्पष्ट है कि आरएसएस के अनुसार हिंदू राष्ट्र में ग़ैर-हिंदुओं, विशेष रूप से मुसलमानों और ईसाइयों को नागरिकता के वे अधिकार नहीं मिल सकते, जो हिंदुओं को स्वाभाविक रूप से प्राप्त होंगे। यानी उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनकर रहना होगा। गोलवलकर के ये विचार जो सदैव आरएसएस और उनके सभी संगठनों के लिए प्रेरक रहे हैं और पिछले दस साल के अपने शासन के दौरान नरेंद्र मोदी और भाजपा सरकार ने जो बहुत से क़दम उठाये हैं, वे हिंदू राष्ट्र के लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में ही उठाये गये क़दम हैं। इस रास्ते में सबसे बड़ी बाधा भारत का संविधान है, जिसे आरएसएस ने कभी स्वीकार नहीं किया था, आज वह दावा चाहे कुछ भी करे। वर्तमान में भारत के संविधान को बचाना ही सबसे बड़ा संघर्ष है।

संविधान और स्वतंत्र भारत में वैचारिक संघर्ष

संविधान में भारत को राज्यों का संघ कहा गया है, न कि एक राष्ट्र। संविधान के अनुसार इंडिया अर्थात् भारत राज्यों का एक संघ है। यह संसदीय प्रणाली की सरकार वाला एक स्वतंत्र, प्रभुसत्तासंपन्न, समाजवादी, लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। यह गणराज्य भारत के संविधान के अनुसार शासित है, जिसे संविधान सभा द्वारा 26 नवंबर 1949 को ग्रहण किया गया था तथा जो 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया। संविधान संसदीय प्रणाली की सरकार प्रदान करता है, जो कुछ एकात्मक विशिष्टताओं के साथ अपनी संरचना में संघात्मक (फे़डेरल) है। इन बातों से स्पष्ट है कि भारत की मूलभूत संकल्पना में संघात्मकता अंतर्निहित है और उसे एक राष्ट्र के रूप में कल्पित नहीं किया गया है बल्कि राज्यों के एक ऐसे संघ के रूप में कल्पित किया गया है, जिनकी अपनी विशिष्टताएं और विविधताएं हो सकती हैं। भारत की संकल्पना इस रूप में किया जाना इसलिए ज़रूरी था कि भारत हमेशा अपनी विविधताओं के लिए जाना जाता रहा है। भौगोलिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषायी दृष्टि से उसमें इतनी अधिक विविधता है कि उनको एक साथ और एकजुट रखने का आधार उनकी विशिष्टताओं और विविधताओं को स्वीकार करने के साथ-साथ उन्हें एक समान मानकर ही किया जा सकता है। संविधान की प्रस्तावना में इसी भावना की अभिव्यक्ति हुई है। 

तीन सौ सदस्यों की संविधान सभा ने लगभग तीन साल लंबे विचार-विमर्श के बाद 26 नवंबर 1949 को संविधान स्वीकार कर लिया था। इस संविधान सभा में समाज के लगभग सभी वर्गों और समुदायों का प्रतिनिधित्व था और उन्होंने खुलकर अपने विचार पेश किये थे। संविधान सभा द्वारा नियुक्त प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. बी. आर. आंबेडकर थे, जिन्होंने संविधान को अंतिम रूप प्रदान किया था। संविधान सभा ने सर्वसम्मति से जिस तरह के भारत की संकल्पना की थी,  वह किसी विदेशी प्रभाव का नतीजा नहीं थी, बल्कि भारत का जो बहुभाषिक, बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक चरित्र हज़ारों सालों में निर्मित हुआ था, उसी को संरक्षित करने की कोशिश इस संविधान के द्वारा की गयी थी। ऐसा करते हुए उन्होंने संविधान के द्वारा एक आधुनिक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज बनाने का प्रयत्न भी किया था ताकि यहां रहने वाले सभी जनसमुदाय बराबरी की भावना लेकर एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर रह सकें और हमारे समाज में गहरे तक जड़बद्ध आंतरिक कमज़ोरियों से मिलजुल कर मुक्त होते हुए उसे मिटाने का सामूहिक प्रयास कर सकें। यही वजह है कि प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से एक न्यायपूर्ण समाज बनाने की बात कही गयी है। इसी तरह प्रत्येक भारतीय को अपने विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता की बात भी कही गयी है। यहां किसी ख़ास विचार, किसी ख़ास धर्म, किसी ख़ास उपासना पद्धति की बात नहीं कही गयी है, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति की जो भी सोच हो, जिस धर्म में विश्वास करता हो (या न करता हो), जिस पद्धति से उपासना करता हो (या न करता हो) और जिस तरह से चाहे अपने को अभिव्यक्त करना चाहता हो, उसकी स्वतंत्रता हमारा संविधान हमें देता है। यह प्रस्तावना हमें स्टेटस और अवसर की भी समानता देता है। इस प्रस्तावना में यह भी कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करते हुए सभी के बीच बंधुत्व का भाव सुनिश्चित किया जायेगा।

इसी प्रस्तावना के आलोक में संविधान में वर्णित मूल अधिकारों को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। संविधान में समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धर्म संबंधी स्वतंत्रता का अधिकार, संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार और संवैधानिक उपचारों का अधिकार मूल अधिकारों के अंतर्गत शामिल किया गया है और ये मूल अधिकार दरअसल प्रस्तावना की भावना को ही और विस्तार देते हैं और इन्हें मूल अधिकार कहकर प्रत्येक नागरिक के लिए इनकी गारंटी को सुनिश्चित कर दिया गया है।

यहां यह भी रेखांकित करने की ज़रूरत है कि इन अधिकारों को अमूर्त नहीं छोड़ा गया है, बल्कि अनुच्छेद 14 से 21 तक उनकी स्पष्ट व्याख्या की गयी है। हालांकि इन स्वतंत्रताओं के साथ कुछ शर्तें भी जोड़ दी गयी हैं, जिसका लाभ सत्ताएं इन स्वतंत्रताओं में कटौती करने के लिए करती रही हैं।

संविधान में मूल अधिकारों का ही उल्लेख नहीं है, साथ ही नागरिकों के कर्त्तव्यों का भी उल्लेख किया गया है। संविधान की प्रस्तावना, मूल अधिकारों और कर्त्तव्यों का उल्लेख करने का मक़सद यही है कि इनके द्वारा हम समझ सकते हैं कि देश को न केवल भौतिक रूप से समृद्ध बनाने पर ही बल नहीं दिया गया है, बल्कि एक ऐसा देश बनाने पर भी बल दिया गया है, जो भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विविधताओं के बावजूद अपनी परंपराओं का संरक्षण करते हुए भी एक आधुनिक, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समता पर आधारित न्यायपूर्ण समाज बन सके। लेकिन प्रश्न यही है कि आज़ादी हासिल करने के 75 साल बाद क्या दावे के साथ कह सकते हैं कि हमने उस भारत को हासिल कर लिया है, जिसकी संकल्पना संविधान में की गयी है? कहीं ऐसा तो नहीं कि आज उन हम ताक़तों द्वारा शासित हो रहे हैं, जिनका आज़ादी की लड़ाई में किसी तरह का योगदान नहीं रहा है और न हीं जिनका संविधान पर कभी विश्वास रहा है?

दरअसल, संविधान में जो कुछ भी लिखा गया है, वह उन सर्वोच्च मस्तिष्कों के सामूहिक चिंतन का नतीजा था जिनमें से ज़्यादातर ने आज़ादी की लड़ाई में भाग भी लिया था और उससे जो सबक़ उन्होंने हासिल किया था, वह भी उनके सामने मौजूद था। इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि अभी हाल ही में आज़ाद हुआ देश  इस महान ग्रंथ में कही गयी बातों को आत्मसात करने की क्षमता हासिल कर चुका होगा। दरअसल, इस देश की जनता के पास जो चीज़ थी, वह थी आज़ादी की लड़ाई के उन नायकों पर भरोसा। उनके इस विश्वास की पहली परीक्षा 1952 में तब हुई, जब पहला चुनाव हुआ और प्रत्येक बालिग भारतीय जिसका धर्म कुछ भी क्यों न रहा हो, जिसकी जाति कुछ भी क्यों न रही हो, जो देश के किसी इलाक़े में रहते हों, स्त्री हो या पुरुष, सबको वोट डालने का न केवल अधिकार मिला, उन्होंने वोट डाला भी और हरेक ने महसूस किया कि वे इस देश में, यहां के संविधान के समक्ष एक हैं और समान हैं।

देश में ऐसे बहुत से लोग, समूह और संगठन थे, जो संविधान के प्रावधानों से पूरी तरह सहमत नहीं थे। कांग्रेस जिसकी देश की आज़ादी की लड़ाई में सबसे बड़ी भूमिका रही थी और संविधान निर्माण में भी सबसे बड़ा योगदान था, उसके नेतृत्व में ही ऐसे बहुत से लोग थे जिनका झुकाव दक्षिणपंथ और सांप्रदायिकता की ओर था। जवाहरलाल नेहरू के ईर्द-गिर्द के  ज़्यादातर नेता वैचारिक दृष्टि से उनसे दूर और कुछ हद तक विरोधी भी थे। आज़ादी के आरंभिक चार-पांच सालों तक ऐसे दक्षिणपंथी नेताओं का कांग्रेस के संगठन पर वर्चस्व था। पुरुषोतम दास टंडन जैसे कुछ हद तक सांप्रदायिक, हिंदूपरस्त और परंपरावादी नेता सरदार पटेल के समर्थन से अगस्त 1950 में कांग्रेस अध्यक्ष बनाये गये, जबकि 1949 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद में ‘रामलला’ की मूर्ति चुपके से रखवाने में कहीं न कहीं उनकी भूमिका भी थी।

जवाहरलाल नेहरू के बाद कांग्रेस के दूसरे सबसे प्रभावशाली नेता सरदार पटेल का झुकाव भी दक्षिणपंथ की तरफ़ था और हिंदू सांप्रदायिकता के मसले पर भी उनका रवैया अपेक्षाकृत नरम रहता था। एक अन्य नेता डॉ. राजेंद्र प्रसाद, जो संविधान सभा के अध्यक्ष बनाये गये थे और बाद में वे देश के प्रथम राष्ट्रपति बने, की इतिहास की समझ भी सांप्रदायिक सोच से प्रेरित थी। गुजरात में सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करने की शुरुआत 1947 में सरदार पटेल के प्रयासों से हुई थी । 1951 में इस मंदिर का उद्घाटन होना था और इसके लिए राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को आमंत्रित किया गया था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद को सलाह दी थी कि वे मंदिर के उद्घाटन में शामिल न हों (भारत : गांधी के बाद, रामचंद्र गुहा से उद्धृत)। नेहरू की इस सलाह को दरकिनार रखकर राजेंद्र प्रसाद उद्घाटन समारोह में शामिल हुए।

बी. आर. आंबेडकर और जवाहरलाल नेहरू आरएसएस को देश के लिए सबसे बड़ा ख़तरा समझते थे। आंबेडकर ने तो 1946 में ही कह दिया था कि ‘यदि हिंदू राज किसी दिन वास्तविकता बनता है, तो निस्संदेह इस देश के लिए बहुत बड़ी आपदा होगी…किसी भी क़ीमत पर हिंदू राज बनाये जाने से बचाया जाना चाहिए’ ('पाकिस्तानऑर दि पार्टिशन ऑफ इंडिया’ से उद्धृत)। लेकिन पटेल सहित कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेताओं की नज़र में सबसे बड़ा ख़तरा कम्युनिस्टों से था। कांग्रेस के इन नेताओं की कम्युनिस्ट-विरोधी भावना को देखकर ही आरएसएस के सरसंघ चालक एम.एस.गोलवलकर ने पटेल को लिखे 24 सितंबर 1948 के एक पत्र में यह सुझाव दिया था कि ‘अगर आपकी सरकार की ताक़त और हमारा संगठित सांस्कृतिक बल एकजुट हो जायें, तो हम बहुत जल्दी ही इस ख़तरे को ख़त्म कर सकेंगे’ (दि आरएसएस : ए मेनेस टू इंडिया, ए. जी. नूरानी, 2019, लेफ़्टवर्ड, नयी दिल्ली, पृ. 452)। इससे कुछ ही दिनों पहले (11 सितंबर, 1948) ‘भाई गोलवलकर’ को लिखे एक पत्र में स्वयं पटेल उन्हें यह सुझाव दे चुके थे कि आरएसएस के लोगों को कांग्रेस में शामिल हो जाना चाहिए। एक सांप्रदायिक फ़ासीवादी संगठन से जुड़े लोगों को कांग्रेस में शामिल होने का निमंत्रण देना यह बताने के लिए पर्याप्त है कि कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व में नेहरू जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकतर नेता न केवल दक्षिणपंथी थे, वरन हिंदुत्वपरस्त सांप्रदायिकता और रूढ़िवाद के गहरे प्रभाव में भी थे। 

यहां यह कहने की कोशिश नहीं है कि कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेता देशभक्त नहीं थे। इन सभी नेताओं ने आज़ादी की लड़ाई में भाग लिया था और जेल भी गये थे। आरएसएस की तरह वे आज़ादी की लड़ाई से अलग नहीं रहे थे, लेकिन उनकी विश्वदृष्टि नेहरू से ही नहीं, महात्मा गांधी से भी काफ़ी दूर थी और गांधीजी उनकी इस वैचारिक सीमा को पहचानने लगे थे। यही वजह है कि महात्मा गांधी ने निराश होकर कांग्रेस को भंग करने की बात कही थी, तो दूसरी ओर, वे यह भी पहचान गये थे कि नेहरू ही अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जो विविधताओं से भरे इस देश को एकजुट भी रख सकते हैं। यही वजह है कि उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए जवाहरलाल नेहरू का नाम प्रस्तावित किया। 

नेहरू के नेतृत्व में 1952 में आम चुनाव लड़ा गया जिसमें कांग्रेस को भारी बहुमत के साथ विजय मिली। नेहरू ने इस चुनाव में प्रचार के लिए लगभग बीस हज़ार मील की यात्रा की। उन्होंने अपने भाषणों में सबसे अधिक प्रहार सांप्रदायिकता पर किया था। नेहरू ने अपने एक भाषण में आंबेडकर की ही बात को दोहराते हुए कहा था, ‘शैतानी सांप्रदायिक तत्व अगर सत्ता में आ गये तो देश में बर्बादी और मौत का तांडव लायेंगे’ (भारत : गांधी के बाद, रामचंद्र गुहा, पृ. 173)। इसी तरह एक अन्य भाषण में उन्होंने कहा था, ‘अगर कोई भी आदमी किसी दूसरे आदमी पर धर्म की वजह से हाथ उठाता है, तो मैं सरकार के मुखिया होने के नाते और सरकार से बाहर भी ज़िंदगी की आख़िरी सांस तक उससे लड़ता रहूंगा’ (वही, पृ.174)। भारतीय जनसंघ, जिसकी स्थापना अक्टूबर 1951 में हुई थी, के बारे में बंगाल में उन्होंने कहा था कि जनसंघ आरएसएस और हिंदू महासभा की नाजायज़ औलाद है (वही, पृ. 174)।

1962 के आम चुनाव तक आते-आते कांग्रेस की लोकप्रियता कुछ हद तक कम होने लगी थी। इन दस सालों में कम्युनिस्ट पार्टी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी थी, लेकिन कांग्रेस की तुलना में वह काफ़ी पीछे थी। इन दस सालों में भारतीय जनसंघ के वोट दुगुने और सीटें चार गुने से ज़्यादा हो गयी थीं। लेकिन धर्मनिरपेक्ष पार्टियों की नज़र में वह कोई ऐसा ख़तरा नहीं बनी थी कि वे उसको गंभीरता से लें। लेकिन वामपंथी, समाजवादी और कांग्रेस जिस बात की अनदेखी कर रहे थे, वह आरएसएस का ज़मीनी स्तर पर बढ़ता फैलाव था। 

समाजवाद के प्रति अपने को वचनबद्ध कहने वाले दल और समूह जिन्होंने कांग्रेस इसलिए छोड़ दी थी कि आज़ादी के बाद की कांग्रेस पर दक्षिणपंथियों का वर्चस्व हो गया था, उनमें धीरे-धीरे कांग्रेस को सत्ता से हटाने की ऐसा उन्माद पैदा हो गया कि वे अपनी ताक़त बढ़ाने के लिए शैतान से भी हाथ मिला सकते थे। राम मनोहर लोहिया ने कांग्रेस को हराने के लिए ‘ग़ैर-कांग्रेसवाद’ का नारा दिया, जिसका मतलब ही था कि किसी भी क़ीमत पर कांग्रेस को सत्ता से हटाओ। 1967 में उन्हें इसकी संभावना नज़र आयी।

इंदिरा गांधी के सत्ता में आने के एक साल बाद ही फ़रवरी 1967 में चौथा आम चुनाव हुआ और इस चुनाव में कांग्रेस एक बार फिर सत्ता हासिल करने में कामयाब रही, लेकिन उसको मिलने वाले वोट और सीटों में काफ़ी कमी आ गयी। कांग्रेस के नुक़सान का फ़ायदा समाजवादियों, कम्युनिस्टों, भारतीय जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम को मिला। पिछले दस सालों में कांग्रेस के वोटों में 8 प्रतिशत की कमी आ गयी थी।

संघ-भाजपा के प्रति नरम रुख़ की शुरुआत

1967 में कांग्रेस को कुछ राज्यों में उसे सत्ता गंवानी पड़ी। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा और बिहार राज्य, जिसमें कांग्रेस को मामूली बहुमत मिला था, वहां कुछ समय बाद कांग्रेस से निकलकर अलग-अलग पार्टी बनाने वालों ने भारतीय जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी, स्वतंत्र पार्टी और कुछ क्षेत्रीय पार्टियों के साथ मिलकर जो सरकारें बनायीं, उन्हें ‘संयुक्त विधायक दल’ कहा गया। यह राजनीति में एक नये प्रयोग की शुरुआत थी, जिसका कोई वैचारिक आधार नहीं था। उनके बीच एकता का एक ही आधार था, कांग्रेस को सत्ता से बाहर करना और सत्ता पर क़ाबिज़ होना। केरल, बंगाल और तमिलनाडु से संविद सरकारें इस अर्थ में अलग थीं कि केरल और बंगाल के गठबंधन का एक वैचारिक आधार था और द्रमुक तमिल अस्मिता का प्रतिनिधित्व करने वाला एक प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष दल था। यह अंतर ज़मीनी स्तर पर भी नज़र आ रहा था। लेकिन उत्तर भारत के राज्यों में बनने वाली ग़ैर-कांग्रेसी सरकारों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता था। 

भारतीय जनसंघ को सत्ता में भागीदार बनाने का नतीजा जल्दी ही दिखने लगा था। सातवें दशक में जगह-जगह सांप्रदायिक दंगे होने लगे। ‘राष्ट्रीय एकता परिषद द्वारा जारी किये गये आंकड़ों के मुताबिक़ सन 1966 में 132, 1967 में 220 और 1968 में 346 सांप्रदायिक घटनाएं हुईं। इनमें बढ़ोतरी का क्रम 1969 और 1970 में भी जारी रहा’। (रामचंद्र गुहा, भारत : नेहरू के बाद, 2012, पेंग्विन बुक्स, गुड़गांव, पृ. 58)। सबसे ज़्यादा दंगे उत्तर प्रदेश और बिहार में हुए। हालांकि सबसे भयावह दंगा अहमदाबाद और रांची में हुआ था। सातवें दशक में दंगों की घटनाओं में बढ़ोतरी के कारणों पर विचार करते हुए रामचंद्र गुहा ने लिखा, ‘सांप्रदायिक हिंसा में अचानक बढ़ोतरी की एक वजह थी राज्य सरकारों का ढुलमुल रवैया। दूसरी वजह यह थी कि 1965 में लड़ाई के बाद पाकिस्तान विरोधी भावनाएं उफान पर थीं, जिसे आसानी से मुसलमानों के ख़िलाफ़ मोड़ा जा सकता था। देश में एक वर्ग ऐसा बन गया था, जिसने ग़लत तरीक़े से मुसलमानों पर दुश्मनों से सहानुभूति रखने का आरोप लगाना शुरू कर दिया। जनसंघ से प्रेरित हिंदुओं ने मुसलमानों पर ऐसा आरोप लगाना शुरू कर दिया।

1967 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस सत्ता में तो आ गयी, लेकिन कांग्रेस के अंदर के कुछ नेता भी और बाहर के विपक्षी दलों का मानना था कि अगर समस्त विपक्षी पार्टियां एकजुट हो जायें तो कांग्रेस को सत्ता से बेदख़ल किया जा सकता है।  वैचारिक रूप से समाजवादी दलों ने कांग्रेस विरोध को ‘ग़ैर-कांग्रेसवाद’ का वैचारिक आधार देकर अपने राजनीतिक अवसरवाद को सैद्धांतिक जामा पहनाने की कोशिश की। इसने  वैचारिक रूप से समाजवादियों को सबसे ज्यादा कमज़ोर किया। धर्मनिरपेक्षता अब उनके लिए हाशिये की चीज़ हो गयी और समाजवाद भी ज़बानी जमाख़र्च की चीज़ भर रह गयी। इन दोनों की जगह लोहिया जैसे नेताओं ने वैचारिक स्तर पर राष्ट्रवाद और भारतीय सांस्कृतिक परंपरा का ऐसा घालमेल पेश किया जो भारतीय जनसंघ की सांप्रदायिक राष्ट्रवाद की विचारधारा से बहुत अलग नहीं था। 

इस ख़तरे से निपटने के लिए इंदिरा गांधी ने कुछ ऐसे लोकप्रिय क़दम ज़रूर उठाये गये, जो उनकी वामपंथी छवि बनाने में सहायक बने। उन्होंने कुछ बड़े निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया।  राजा-महाराजाओं को मिलने वाला प्रिवी पर्स ख़त्म किया गया और ‘ग़रीबी हटाओ’ का नारा दिया गया, जो निश्चय ही जनता को ज़्यादा अपील करने वाला था। इंदिरा गांधी ने नेहरू जी की निर्गुट विदेश नीति को जारी रखा। उनके इन क़दमों ने कांग्रेस के अंदर के वामपंथी रुझान वाले युवाओं को आकृष्ट किया।   प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने पक्ष में बदलते हुए हालात का लाभ उठाते हुए आम चुनाव एक साल पहले ही करा लिये। 1971 में हुए चुनाव में इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के लिए वह ज़मीन वापस हासिल कर ली, जिसे 1967 में कांग्रेस ने गंवा दिया था। 

इस चुनाव ने यह स्पष्ट कर दिया कि कांग्रेस को हराने के लिए ग़ैर कांग्रेसवाद का नारा कारगर साबित नहीं हुआ। जनता ने दक्षिणपंथी, समाजवादी और सांप्रदायिक दलों को नकार दिया था। लेकिन लगभग उसी समय  पाकिस्तान के साथ भारत का युद्ध हुआ, जिसमें पाकिस्तान की करारी हार हुई और पूर्वी पाकिस्तान एक स्वतंत्र देश, बांग्लादेश बना।

इस सारे घटनाक्रम ने इंदिरा गांधी की लोकप्रियता तो बढ़ायी, लेकिन शरणार्थी समस्या और युद्ध ने देश को आर्थिक संकट में भी धकेल दिया। महंगाई और बेरोज़गारी के विरुद्ध जगह-जगह आंदोलन हुए। विशेष रूप से गुजरात से लेकर बिहार तक हुए आंदोलनों का नेतृत्व भारतीय जनसंघ सहित उन राजनीतिक पार्टियों ने किया, जो 1967 के बाद से ही ‘ग़ैर-कांग्रेसवाद’ के नाम पर कांग्रेस विरोधी आंदोलनों में साथ-साथ सक्रिय थीं। 1974 के आसपास होने वाले इन आंदोलनों का नेतृत्व करने के लिए भूतपूर्व समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण एक बार फिर राजनीति में सक्रिय हो गये।  लेकिन इसका सबसे अधिक लाभ भारतीय जनसंघ ने उठाया, जिसने आरएसएस और उनसे जुड़े छात्र और युवा संगठनों को इसमें पूरी ताक़त से झोंक दिया। अपनी एक आंदोलनकारी और कुछ हद तक धर्मनिरपेक्ष छवि का मुखौटा लगाकर जनता के बीच एक सम्मानित जगह हासिल करने का यह उनके लिए बहुत बड़ा अवसर था। 

आपातकाल के बाद 1977 में जनता पार्टी के रूप में एक नयी पार्टी का गठन हुआ। यह पार्टी भी कांग्रेस की तरह पार्टी कम एक मंच ज़्यादा थी, जिसमें भांति-भांति के रंग-रूप के राजनीतिक समूह शामिल थे। ये सभी अपने धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करते थे। लेकिन धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता उनके लिए जीवन-मरण का सवाल नहीं था। इसलिए भारतीय जनसंघ को जनता पार्टी में शामिल करने के ख़तरे की ओर न केवल किसी ने ध्यान नहीं दिया, बल्कि उसका स्वागत किया गया, क्योंकि इन सबका एक ही लक्ष्य था, कांग्रेस को सत्ता से बाहर करना। समाजवादियों का वैचारिक पतन इस हद तक हो चुका था कि जब प्रधानमंत्री पद के लिए दलित समाज से आये जगजीवनराम का नाम प्रस्तावित किया गया और चौधरी चरणसिंह जैसे नेताओं ने इसका विरोध किया, तब उनकी जगह घोर दक्षिणपंथी नेता मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव लाये जाने पर किसी समाजवादी ने इसका विरोध नहीं किया। यह और बात है कि जनता पार्टी का यह प्रयोग बहुत लंबे समय तक नहीं चला और जल्दी ही वह टूट-फूटकर कई टुकड़ों में बंट गयी।

जनता पार्टी के टूटने का एक प्रमुख कारण भारतीय जनसंघ से आये सदस्यों की अब भी आरएसएस से संबद्धता का बना रहना था। आरएसएस से संबद्धता का विरोध मधु लिमये जैसे समाजवादी नेताओं ने किया, जो लोहिया जैसे समाजवादी नेताओं के भारतीय जनसंघ के साथ गठजोड़ के विचार से 1967 में भी सहमत नहीं थे। इस घटना ने एक बार फिर साबित कर दिया था कि न संघ बदला था और न संघ के राजनीतिक कार्यकर्ता बदले थे। इसलिए वे जल्दी ही एक नये नाम ‘भारतीय जनता पार्टी’ के साथ राजनीतिक दल के रूप में पुन: संगठित हो गये। भारतीय जनसंघ हो या भारतीय जनता पार्टी, ये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखौटे भर थे। लगभग सभी धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियां, सत्ता-स्वार्थ के चलते, इस सच्चाई को भुलाती रही हैं। 

जवाहरलाल नेहरू के बाद के दौर में सांप्रदायिकता के प्रति कांग्रेस और अन्य सभी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों में जिस वैचारिक सजगता और सक्रियता की आवश्यकता थी, वह धीरे-धीरे लुप्त होने लगी। कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखने के लिए जो गठजोड़ समय-समय पर बनते-बिगड़ते गये, उसने कांग्रेस को तो कमज़ोर किया, लेकिन उसका सबसे ज़्यादा लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिला, अन्य किसी धर्मनिरपेक्ष पार्टी को नहीं।

1980 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो गयी थी। लेकिन यह दूसरा दौर काफ़ी हलचल भरा रहा। स्थितियां और बदतर हो गयीं, जब 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की खालिस्तान समर्थकों द्वारा हत्या कर दी गयी। इंदिरा गांधी की हत्या का बदला सिख विरोधी दंगों द्वारा लिया गया इसके बाद हुए चुनाव में कांग्रेस को बहुत बड़ी विजय प्राप्त हुई, लेकिन इस विजय के पीछे हिंदू प्रतिक्रिया का बहुत बड़ा हाथ था।  भारतीय जनता पार्टी ने 1984 में कांग्रेस की भारी जीत से यही सबक़ लिया कि हिंदुओं को सांप्रदायिक मसले पर भड़काया जा सकता है और यहीं से बाबरी मस्जिद बनाम राम जन्मभूमि आंदोलन की शुरुआत हुई।

कांग्रेस, संघ-भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति का मुक़ाबला करने की बजाय स्वयं उसके जाल में उलझती चली गयी। उग्र हिंदुत्व का जवाब नरम हिंदुत्व से देने लगी।  यह ज़रूर है कि कांग्रेस ने कभी भी भाजपा के साथ किसी तरह का समझौता नहीं किया। ऐसा कोई अवसरवादी समझौता कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी नहीं किया। लेकिन एक-दो अपवादों को छोड़कर अधिकतर बूर्जुआ पार्टियों ने भाजपा के साथ गठबंधन भी किये और सरकारें भी बनायीं।

लगभग चार दशकों से संघ-भाजपा धर्म के नाम पर राजनीति ही नहीं कर रही है, बल्कि जनता में फूट डालने का काम भी कर रही है। बाबरी मस्जिद का विध्वंस, समय-समय पर होने वाले एकतरफ़ा दंगे और मुस्लिम आबादी के बारे में जानबूझकर फैलाये जाने वाले झूठों ने देश के पूरे माहौल को विषाक्त बना दिया है। मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुले आम पिछले बीस से अधिक सालों (इसमें गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल भी शामिल है) से मुसलमानों के विरुद्ध सार्वजनिक रूप से ज़हर उगलते आ रहे हैं। सांप्रदायिक उन्माद ने ही भाजपा को पहले गुजरात में और पिछले दो संसदीय चुनावों में जीत दिलवायी है। यहां यह कहना ज़रूरी है कि यह समझना कि केवल चुनावों के द्वारा भाजपा को पराजित किया जा सकता है, केवल भ्रम है, जबकि लोकतंत्र के सभी स्तंभों और संस्थाओं ने मौजूदा सत्ता के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है। हालात इस हद तक बिगड़ चुके हैं कि संविधान के प्रति वचनबद्ध किसी भी संस्थान की हिम्मत नहीं है कि सत्तासीन सांप्रदायिक तत्वों को रोक सके या उनके विरुद्ध क़ानूनी कार्रवाई कर सके।

इसकी एक बड़ी वजह यह है कि राजनीतिक पार्टियों का, विशेष रूप से बूर्जुआ पार्टियों का वैचारिक पतन होना। इन पार्टियों के अधिकतर नेताओं के लिए राजनीति में सक्रियता और चुनाव लड़ना आजीविका का ऐसा शानदार साधन हो गया है, जिसके द्वारा वे धन और सत्ता, दोनों का सुख हासिल कर सकते हैं। इसके लिए जो भी तिकड़में और समझौते करने ज़रूरी होते हैं, उन्हें करने में न कोई नैतिक और न ही वैचारिक बाधा उनके सामने होती है। 

भारतीय राजनीति में मध्यवित्तीय, पिछड़ी और दलित जातियों के उत्थान ने राजनीति में किसी बुनियादी बदलाव की ज़मीन तैयार नहीं की। इन वर्गों के नेतृत्व की केवल यह आकांक्षा थी कि सत्ता जो अब तक उच्च वर्णों और वर्गों के हाथ में रही है, उसमें उनकी भी हिस्सेदारी हो। उनकी यह इच्छा काफ़ी हद तक पूरी भी हुई। लेकिन वे सत्ता के वर्गीय चरित्र में कोई बदलाव नहीं ला सके या यह कहना चाहिए कि उनमें ऐसी कोई इच्छा भी नहीं थी और न ही ऐसा करना उनके राजनीतिक एजेंडे में शामिल था। जाति आधारित इस राजनीति की सीमा यह भी थी कि प्रत्येक जाति, चाहे संख्या की दृष्टि से कितनी भी बड़ी क्यों न हो, अकेले अपने बलबूते पर सत्ता के शीर्ष पर नहीं पहुंच सकती थी। इसके लिए दूसरी जातियों के साथ गठजोड़ करना ज़रूरी था और वैसा किया भी गया। इस ज़रूरत ने हर जाति में ऐसे नेताओं की खेप पैदा कर दी जो अपनी जाति के वोट दिलवाने का काम करने में माहिर हों। यह राजनीति में केरियर बनाने का पहला चरण होता है और इसे सफलतापूर्वक करने पर और आगे बढ़ने की संभावना मज़बूत होती है। इसका दिलचस्प पहलू यह भी है कि दलबदल कर किसी भी पार्टी में आने-जाने से पहचान पर कोई असर नहीं पड़ता और विचारधारा को लेकर न तो कोई सवाल पूछता है और न उंगली उठाता है।

आज स्थिति यह है कि भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़कर शेष सभी पार्टियां विचारधारा रहित हो गयी हैं। यही कारण है कि 1990 के बाद से आर्थिक उदारवाद को सभी बूर्जुआ पार्टियों ने जिस सहजता से स्वीकार कर लिया, वह बिल्कुल नहीं चौंकाता। ऐसा लगता है जैसे इस पर एक व्यापक राष्ट्रीय सहमति बन गयी है। इस आम सहमति का ही नतीजा है कि अस्सी करोड़ लोग पांच किलो अनाज पर खुश हैं और महज 15-20 उद्योगपति देश की पूरी संपदा पर क़ब्ज़ा जमाते जा रहे हैं और यह किसी भी तरह के आंदोलन के लिए मुद्दा नहीं बन रहा है। कभी-कभार किसान या मज़दूर आंदोलन करने को मजबूर भी होते हैं, तो इन आंदोलनों को कुचलने के लिए उठाये गये क़दमों से कोई विचलित होता नज़र नहीं आता। गज़ा में इसराइल द्वारा पिछले सात महीने से किये जा रहे नरसंहार ने अमरीका और यूरोप में लगभग वैसे ही युद्ध विरोधी आंदोलन पैदा कर दिये हैं, जैसे वियतनाम के समय पैदा हुए थे। लेकिन भारत में कमोबेश सभी विश्वविद्यालयों में सन्नाटा छाया हुआ है। कोई आश्चर्य नहीं कि हिंदुत्व की राजनीति के प्रभाव में आयी हुई जनता इस बात से ख़ुश हो कि गज़ा में मरने वाले मुसलमान हैं।

सत्तर-अस्सी के दशक में यह आम धारणा थी कि जाति आधारित राजनीति सांप्रदायिकता के विरुद्ध हथियार की तरह इस्तेमाल की जा सकती है और शायद कुछ समय के लिए की भी गयी। लेकिन बहुत लंबे समय तक यह प्रयोग कामयाब नहीं हुआ। इसके विपरीत देखा यह गया है कि जाति आधारित राजनीति ने सांप्रदायिकता के लिए ज़मीन तैयार करने का काम ही किया है। जाति आधारित राजनीति जिस जाति या जातियों को अपने पीछे लामबंद करती है, उनमें अपनी जाति आधारित पहचान को लेकर न केवल जागरूकता का होना ज़रूरी है, दूसरों से अपने को अलगाने की भावना का होना भी ज़रूरी है। दरअसल जातिवाद केवल जाति भावना को ही मज़बूत नहीं करता है, वह श्रेणीबद्धता की भावना को भी मज़बूत करता है, क्योंकि जातिवाद में श्रेणीबद्धता अंतर्निहित है। चूंकि जातिवाद हिंदू समाज की सामाजिक संरचना का हिस्सा है, इसलिए जिस हिंदू में जाति भावना मज़बूत होती है, उसमें धार्मिक चेतना भी मज़बूत होती जाती है। एक स्तर पर वह अपनी जाति पहचान को लेकर गर्व महसूस करता है तो दूसरी ओर अपनी धार्मिक पहचान को लेकर भी उनमें आसानी से गर्व भावना पैदा की जा सकती है।

हमारे संविधान में धर्म, जाति, जेंडर के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव को न केवल अस्वीकार किया गया है, बल्कि ऐसा भेदभाव करने को अपराध घोषित किया गया है। कोई भी आरएसएस से थोड़ा भी परिचित है, वह यह अच्छी तरह से जानता है कि उसने कभी भी संविधान की प्रस्तावना को स्वीकार नहीं किया। आज वह वोट की राजनीति के चलते आंबेडकर और आरक्षण के बारे में कुछ भी दावा क्यों न करे, सच्चाई यह है कि भारतीय जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के परंपरागत समर्थक वे ही समुदाय रहे हैं, जिन पर ब्राह्मणवाद का गहरा प्रभाव रहा है और जातिवाद में आकंठ डूबे रहे हैं। संघ और उसके सभी संगठनों की छवि मुसलमान विरोधी होने के साथ-साथ दलित विरोधी होने की भी रही है। उन्होंने दलितों और आदिवासियों को मिलने वाले आरक्षण को कभी स्वीकार नहीं किया। जब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की उन सिफ़ारिशों को लागू करने की घोषणा की जिसके अनुसार पिछड़ी जातियों के लिए भी शिक्षा और रोज़गार में 27 प्रतिशत आरक्षण की संस्तुति की गयी थी, तो उसके प्रभाव को ख़त्म करने के लिए भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने राम मंदिर के पक्ष में रथ-यात्रा निकालने का निर्णय लिया। यही नहीं, उस समय आरक्षण के विरोध में जो आंदोलन हुआ, उसके पीछे आरएसएस-भाजपा की फ़ौज ही सड़क पर उतर आयी थी।

जिस हिंदू राष्ट्र की बात आरएसएस करता है, वह दरअसल सवर्ण वर्चस्व वाला हिंदू राष्ट्र होगा, जिसमें मुसलमान ही दोयम दर्जे के नागरिक नहीं होंगे, दलितों को भी वर्ण-व्यवस्था के अनुसार अपनी वास्तविक जगह बता दी जायेगी। हो सकता है, आज से दस साल पहले तक राजनीतिक दलों को ये बातें बहुत विश्वसनीय न लगती रही हों, क्योंकि तब तक भाजपा को संसद में वह बहुमत नहीं मिला था, जो उसके प्रकट और गुप्त एजेंडे को लागू करने के लिए ज़रूरी था। लेकिन 2014 में प्राप्त बहुमत ने उन्हें इतनी ताक़त अवश्य दे दी थी कि मुसलमानों और दलितों की कई जगह भीड़ द्वारा हत्याएं की गयीं। आरक्षण काग़ज़ों पर तो बना रहा, लेकिन व्यवहार में वह कमज़ोर होता गया। जब नरेंद्र मोदी, अमित शाह और मोहन भागवत यह दावा करते हैं कि वे कभी आरक्षण ख़त्म नहीं होने देंगे, तब लोग यह सवाल नहीं पूछते कि आज जिस तरह सरकारी नौकरियां ख़त्म की जा रही हैं, तब आरक्षण बना रहने पर भी दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के लिए क्या रोज़गार उपलब्ध होंगे? निजी क्षेत्र में तो आज भी आरक्षण लागू नहीं है और आगे लागू होगा, इसकी दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं है। 2019 में जब भाजपा को और बड़ा बहुमत मिला, तो वे धारा 370 हटाने, सीएए जैसा धर्म के आधार पर भेदभाव करने वाला नागरिकता क़ानून लागू करने और सवर्णों के लिए आर्थिक आधार पर दस प्रतिशत आरक्षण लागू करने में कामयाब रहे, जो अंतत: दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के आरक्षण को कमज़ोर करने का कारण बना।

2024 के चुनाव का विपक्षी दलों के लिए एक बड़ा मुद्दा संविधान की रक्षा करना है। यह आमतौर पर माना जा रहा है कि अगर भाजपा भारी बहुमत से जीतकर आती है तो वह संविधान को भले ही न बदले, लेकिन उसमें ऐसे कई संशोधन कर सकती है, जो यदि एक ओर नागरिकों की स्वतंत्रता और समानता पर कुठाराघात करने वाले होंगे, तो दूसरी ओर, उनमें ऐसी धाराएं जोड़ी जा सकती हैं, जिसके कारण दलितों को मिलने वाले अधिकारों में कटौती होगी और मुसलमानों और ईसाइयों को संविधान में दिये गये बराबरी के हक़ को काफ़ी हद तक कमज़ोर कर दिया जायेगा। आज भी मुसलमानों को व्यवहार में लगभग दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया है लेकिन 2024 के चुनाव के बाद क़ानून की नज़रों में भी वे दोयम दर्जे के नागरिक बना दिये जायेंगे जिसकी शुरुआत नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के द्वारा हो चुकी है।ऐसा इसलिए होगा, क्योंकि आज़ादी हासिल होने के बाद संविधान की प्रस्तावना, मूल अधिकार और कर्त्तव्य को  हमने और हमारा प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीतिक पार्टियों ने हाशिये पर डाल दिया है।