आबादी की चिंता की आड़ में सांप्रदायिक राजनीति

आलेख : राजेंद्र शर्मा


पिछले हफ्ते दुनिया की आबादी ने 8 अरब का आंकड़ा पार कर लिया। यूनाइटेड नेशन्स पॅापूलेशन फंड ने मंगलवार को इसका एलान किया। बहरहाल, इसके साथ ही उसने हम भारतीयों के लिए ध्यान देने वाला एक आंकड़ा और दिया है। यह आंकड़ा बताता है कि दुनिया की आबादी में 100 करोड़ की पिछली बढ़ोतरी में, भारत ने ही 17.7 करोड़ जोड़े हैं यानी उसका योगदान 17.7 फीसद रहा है। दूसरी ओर, आबादी के मामले में भी भारत के मुख्य प्रतिद्वंद्वी, चीन ने इसमें 7.3 करोड़ यानी हमसे आधे से भी कम, 7.3 फीसद का ही योगदान दिया है। इतना ही नहीं, यूनाइटेड नेशन्स पॉपूलेशन फंड का ही आंकलन बताता है कि  विश्व आबादी में अगले एक अरब की बढ़ोतरी में, चीन का योगदान ऋणात्मक रहेगा यानी उसकी आबादी वृद्घि के रुकने के बाद, अब घटनी शुरू हो रही है। लेकिन, भारत के मामले में आबादी में वृद्घि अभी रुकने की मंजिल दूर है।


इसलिए, इस पर कोई विवाद नहीं होगा कि भारत में आबादी की बढ़ोतरी की चुनौती अब भी बनी हुई है, जिससे निपटने के लिए प्रयत्नों में कोई ढील नहीं दी जानी चाहिए। लेकिन, सवाल यह है कि हमारे यहां बहुत बार जो इसे ‘आबादी विस्फोट’ कहकर सनसनी पैदा कर दी जाती है और जोर-जबर्दस्ती वाले उपायों की मांगें की जाने लगती हैं, क्या उसकी कोई वजह है? और इस समस्या को सांप्रदायिक रंग देने से तो लाभ की जगह वास्तव में नुकसान ही हो सकता है।


सचाई यह है कि भारत निश्चित रूप से और तेजी से, अपनी आबादी को स्थिर करने की ओर बढ़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ की उसी रिपोर्ट में यह भी रेखांकित किया गया है कि भारत में आबादी वृद्घि स्थिर होती नजर आती है और उसी रिपोर्ट के अनुसार, यह इसी का संकेतक है कि इस मामले में देश की नीतियां भी और स्वास्थ्य संबंधी व्यवस्थाएं भी, जिसमें परिवार नियोजन सेवाओं तक लोगों की पहुंच भी शामिल है, अपने प्रयासों में कामयाब हो रही हैं।


इस सिलसिले में सबसे महत्वपूर्ण रुझान है देश में कुल फर्टिलिटी रेट में गिरावट का। इस रेट का, जो मोटे तौर पर औसतन एक महिला के प्रसवों की संख्या को दर्शाती है, 2.1 पर आ जाना, आबादी के स्थिर होने के लिए काफी समझा जाता है। भारत में राष्ट्रीय स्तर पर यह दर 2.2 से घटकर, अब 2.0 ही रह गयी है। इसका अर्थ है, आबादी में वृद्घि की रफ्तार पर तेजी से ब्रेक लगना। बेशक, आबादी के बढऩे पर पूरी तरह ब्रेक लगना अभी भी दूर है, पर उसकी बढ़ोतरी की रफ्तार पर तेजी से ब्रेक लग रहा है।


बेशक, पूरे देश में फर्टिलिटी रेट एक जैसी ही नहीं है, फिर भी देश के कुल 31 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में, जहां देश की करीब 70 फीसद आबादी रहती है, यह दर पहले ही आबादी स्थिरता के लिए जरूरी 2.1 से नीचे जा चुकी है। साफ है कि आबादी नियंत्रित करने के सोच से भिन्न, ‘परिवार नियोजन’ की धारणा पर केंद्रित भारत के प्रयास, निश्चित रूप से कारगर हो रहे हैं और उन्हें ही आगे ले जाने की जरूरत है।


संयुक्त राष्ट्र संगठन की वही रिपोर्ट बताती है कि फर्टिलिटी रेट में यह गिरावट परिवार नियोजन के आधुनिक तौर-तरीकों के बढ़ते पैमाने पर अपनाए जाने का परिणाम है। परिवार नियोजन के इन तरीकों का अपनाने वालों का हिस्सा 2015-16 में जहां 47.8 फीसद था, 2019-20 तक बढक़र 56.5 फीसद हो चुका था। दूसरी ओर इसी अवधि में परिवार नियोजन के उपायों की ‘पूरी न हो सकी मांग’ में पूरे चार फीसद की कमी हो गयी।


संयुक्त राष्ट्र संगठन का ही कहना है कि, ‘यह परिवार नियोजन से संबंधित जानकारियों तथा सेवाओं तक पहुंच में उल्लेखनीय बढ़ोतरी को दिखाता है। संक्षेप में यह दिखाता है कि भारत की राष्ट्रीय आबादी नीतियां तथा स्वास्थ्य व्यवस्थाएं, काम कर रही हैं।’ विडंबना यह है कि वर्तमान निजाम और उसके संचालक संघ परिवार, अपने विचारधारात्मक दुराग्रह के चलते, आबादी के मोर्चे पर देश की यह प्रगति देखना ही नहीं चाहता है। उल्टे वह आबादी विस्फोट का हौवा खड़ाकर, एक तो आबादी बढऩे के वास्तविक कारणों के रूप में, गरीबी और सामाजिक पिछड़ेपन की सचाइयों पर पर्दा डालना चाहता है। इससे भी बढक़र वह आबादी के सवाल को, अपने सांप्रदायिक प्रचार का अभियान बनाना चाहता है, ताकि गरीबी तथा पिछड़ेपन के खिलाफ जन-असंतोष से, वर्तमान शासन को बचाया जा सके। अचरज नहीं कि मुसलमानों की बढ़ती आबादी से हिंदुओं के  लिए ‘‘खतरे’’ का प्रचार, आज आबादी के रुझानों की सारी सचाइयों पर हावी है।


वर्ना दुनिया भर में आबादी के रुझानों के सभी अध्ययन, एक स्वर से यह बात कहते हैं कि आबादी में बढ़ोतरी की रफ्तार का किसी समाज में बहुआयामी गरीबी यानी पोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि के मामले में गरीबी की स्थिति से सीधा संबंध है। यह गरीबी जैसे-जैसे घटती है, वैसे-वैसे संतानोत्पत्ति और इसलिए आबादी भी, इन्हीं कारकों से मृत्यु दर में होने वाली कमी से भी तेजी से बढ़ती है। बेशक, सामाजिक-सांस्कृतिक कारक भी आबादी में वृद्घि पर प्रभाव डालते हैं, पर उनका प्रभाव बहुआयामी गरीबी की स्थिति से संचालित रुझान को धीमा या तेज करने की ही भूमिका अदा करता है।


इस मामले में शिक्षा की भूमिका तो इतनी महत्वपूर्ण है कि जनसांख्यिकीविदों का तो बहु-उद्धृत सूत्र ही है कि ‘शिक्षा ही बेहतरीन गर्भ निरोधक है।’ अपेक्षाकृत संपन्न विकसित देशों का अनुभव ही नहीं, खुद भारत में शिक्षा व स्वास्थ्य की दृष्टि से, देश की विशाल हिंदी पट्टी के मुकाबले कहीं संपन्न, केरल जैसे राज्यों का आबादी में वृद्घि की दर का अनुभव भी इसी की गवाही देता है। वास्तव में केरल का अनुभव तो, जहां आधी आबादी मुसलमानों तथा ईसाइयों की ही है, इस सचाई को भी रेखांकित करता है कि बड़े परिवारों का संबंध, धर्म या धार्मिक परंपराओं से कम है और शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं व आम जीवनस्तर से ही ज्यादा है।


आम तौर पर अनुसूचित जाति, जनजाति व अल्पसंख्यक समुदाय चूंकि ज्यादा वंचितता का जीवन जी रहे हैं, उनके बीच जन्म दर संपन्नतर तबकों के मुकाबले ज्यादा है। फिर भी, शिक्षा समेत परिवार नियोजन की बढ़ती जागरूकता के चलते, आम तौर पर सभी तबकों के बीच आबादी में वृद्घि की रफ्तार घट रही है और जिन तबकों में यह रफ्तार ऐतिहासिक रूप से जितनी ज्यादा रही है, अब उतनी ही तेजी से घट भी रही है।अचरज नहीं कि इस सदी की पहली दहाई के दौरान यानी 2001 तथा 2011 की जनगणनाओं के बीच, हिंदुओं की आबादी में बढ़ोतरी दर 16.76 फीसद ही रह गयी, जो इससे पहले के एक दशक में दर्ज हुई 19.92 फीसद की वृद्घि दर से, 3.16 फीसद की कमी को दिखाता था। लेकिन, इसी एक दशक के दौरान मुस्लिम आबादी की वृद्घि में और तीखी गिरावट हुई और यह दर 24.60 फीसद पर आ गयी, जबकि इससे पहले के दशक यानी 1991-2001 के बीच यही दर 29.52 फीसद थी।


यानी आबादी में वृद्घि दर में दोनों मुख्य समुदायों के मामले में उल्लेखनीय कमी का रुझान है, लेकिन जहां हिंदुओं के मामले में एक दशक में वृद्घि दर 3.16 फीसद कमी हुई है, मुसलमानों के मामले में यह कमी और भी ज्यादा है, 4.92 फीसद। संकेत स्पष्ट है कि चंद दशकों में ही हिंदुओं और मुसलमानों की आबादी की वृद्घि दर बराबर हो जाएगी। बेशक, तब तक देश की आबादी में मुसलमानों का हिस्सा कुछ और बढ़ चुका होगा। लेकिन कितना?


1991 की जनगणना के समय देश की कुल आबादी में मुसलमानों का हिस्सा 12.61 फीसद था। बीस साल में, 2011 की जनगणना के समय, यह 14.23 फीसद हो गया यानी बीस साल में डेढ़ फीसद से जरा सा ज्यादा बढ़ गया। गणनाओं के अनुसार, बढ़ोतरी की अगर यही दर बनी रहे तब भी मुसलमानों की आबादी को हिंदुओं से ज्यादा होने में 247 साल लग जाएंगे। यह तब है, जब आबादी में बढ़ोतरी की दरें ज्यों की त्यों रहें। लेकिन, जैसाकि हम पीछे देख आए हैं, ये दरें तो तेजी से गिर रही हैं और विभिन्न समुदायों की वृद्घि दरों में अंतर तेजी से सिमट रहा है।


इसके बावजूद, आबादी की चिंता के बहाने से संघ परिवार का अल्पसंख्यकविरोधी दुष्प्रचार मोदी के दूसरे कार्यकाल में न सिर्फ पहले से तेज हो गया है, बल्कि यह प्रचार सिर्फ यही झूठी धारणा फैलाने तक सीमित नहीं रहा है कि भारत में मुसलमानों की बढ़ती आबादी से, हिंदुओं के अल्पसंख्यक हो जाने का खतरा है। आज बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक दुष्प्रचार में इसे पूरे देश में न सही, खास-खास इलाकों में, जिनमें सीमावर्ती इलाके खास हैं, आबादी का धार्मिक संतुलन बदलने यानी गैर-हिंदू आबादी अनुपातहीन तरीके से बढऩे के प्रचार पर खासतौर पर जोर दिया जाता है। और खास संघ परिवारी शैली में कथित रूप से गैर-हिंदू आबादी के बढऩे को, देश की सुरक्षा के लिए खतरे तक पहुंचा दिया जाता है।


वास्तव में देश के पूर्वी हिस्से में, खासतौर पर प0 बंगाल तथा असम समेत उत्तर-पूर्व में बंग्लादेशियों की अवैध बाढ़ के अतिरंजित प्रचार के सांप्रदायिक दावों से सभी परिचित हैं। इसी प्रचार के हिस्से के तौर पर मोदी के दूसरे कार्यकाल के पहले ही साल में नागरिकता कानून में ही संशोधन कर सांप्रदायिक तत्व जोडऩे के लिए, विवादास्पद नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लाया गया, जिसको बंगाल के विधानसभाई चुनावों में भाजपा ने भुनाने की पूरी-पूरी कोशिश भी की थी। उधर असम में, उसी अतिरंजित प्रचार के आधार पर राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर की अपडेटिंग की आम असमवासियों के लिए बहुत ही तकलीफदेह तथा राज्य के लिए कुल मिलाकर बहुत नुकसानदेह कसरत की गयी, जिसके नतीजों से अब खुद संघ परिवार किसी न किसी बहाने से हाथ झाडऩे की कोशिश कर रहा है, क्योंकि उनकी उम्मीद के विपरीत, इस पूरी कसरत में जिन करीब 18 लाख लोगों की नागरिकता पर सवालिया निशान लगे हैं, उनमें ज्यादा संख्या हिंदुओं की ही है।


कहने की जरूरत नहीं है कि आबादी के प्रश्न को अल्पसंख्यक विरोधी नफरत फैलाने का हथियार बनाया जाना, हमारे देश में आबादी का स्थिरीकरण करने की राह की मुश्किलें ही बढ़ा सकता है। लेकिन, संघ परिवार की विभाजनकारी राजनीति की ठीक यही भूमिका तो है। यह दूसरी बात है कि छोटे परिवारों की बढ़ती प्रवृत्ति, न हिंदुत्ववादियों के ‘मुसलमानों की आबादी बढऩे के खतरे’ के शोर से धीमी पड़ रही है और न मुस्लिम तत्ववादियों के फरमानों से।                                                      


लेखक प्रतिष्ठित पत्रकार और ’लोकलहर’ के संपादक हैं।