हमे क्या मिला देश की आजादी से साहब...?


जश्ने आजादी के बाद भी नही है गाँव में बिजली सडक पानी

कांकेर। ये तस्वीर किसी फ़िल्मी अदाकारा, मॉडल या सेलिब्रेटी का हरगिज नही है। इस चेहरे की कोई ख़ास पहचान भी नही है; और ना ही शायद आज तक किसी ने इस मासूम चेहरे को अपने कैमरे में कैदकर पहचान देने की सोची होगी। इसे जानने-पहचानने वाले गाँव घर के शख्स प्यार से हीरामती के नाम से पुकारते है। वैसे हीरामती कांकेर जिले के उस बियाबान बीहड़ घनघोर जंगल के बीच बसे एक गाँव में रहती जहां हम आप शायद एक रात पिकनिक मानने के तौर पे गुजार सकते है, लेकिन वहां आशियाना बनाने की बात खुदखुशी करने जैसी बात होगी।

शायद इस हकीकत को सुनने वाले हैरत में पड़ सोचेगे की जश्ने आजादी के इतने बरस बाद भी हीरामती के बियाबान जंगल गाँव में पानी, बिजली, सडक, स्वास्थ जैसी सुविधा का कोई नामोनिशान तलक नही है जो हजम होने वाली बात नही है। हीरामती अपने गाँव के ही एक झोपड़ीनुमा स्कुल में ५वी तक शिक्षा हासिल की फिर एक बालिका आश्रम में ६वी की पढाई छोड़। अब यूनिफार्म की जगह साडी पहनना शुरू कर चुकी है। शायद २-३ सालों में उसके घरवाले उसका ब्याह भी कर दे, फिर भी कानूनन तौर पे उसकी शादी का उम्र होने में तकरीबन ०५ सालों का फसला है। हीरामती के उम्र के पडाव को देखकर उसके माता-पिता का भी मन कभी ना कभी सिहार उठता होगा कि उसकी इतनी सुंदर मासूम निश्छल बेटी के साथ कोई अनहोनी ना हो जाए। क्योंकि बस्तर के बीहड़ों में नक्सलवाद के नाम पर दिल पसीज देने वाली ऐसी कई दर्दनाक हादसे हो चुके है जिनकी लाशों को भी आज तलक इन्साफ नही मिल सका। अगर हीरामती इस मुश्किलता से बच भी जाए तो दुसरी ओर लाल आंतक उसे अपने आगोश में लेकर ही दम लेगा। क्योकि जिस उम्र में हीरामती के मासूम हाथों में किताब कलम होना चाहिए उसे हमारे व्यवस्था ने उसके हिम्मत और इच्छाओं तोड़ दिया है, उन इलाकों में ना जाने ऐसे कितने ही हीरामती होंगे जो व्यवस्था के अनदेखी में ना चाहते हुए भी लाल आतंक को ही अपनी तकदीर समझने लगते है।

नेताओं और नौकरशाहों की माने तो बस्तर के बीहड़ों में आखरी छोर तक विकास के बयार बह रही है हर साल उन गरीब आदिवासी बच्चों के बेहतरीन विकास के लिए लाखों करोड़ों के बजट का पुलिंदा कागजों में दर्ज होते है जिसे दिखा सरकार और नौकरशाह विकास बताने में कोई गुरेज नही रखते है। हीरामती जैसे बच्चों के नाम पर मिलने वाले लाखों करोड़ों के बजट से भले एक भी हीरामती पढ़ लिख एक शिक्षक ना बन पाए तो कोई बात नही ये उनके बच्चे थोड़ी ना है। लेकिन हां उनके नामों से मिलने वाले लाखों करोड़ों के बजट से जरुर नेता और नौकरशाहों के औलादें लन्दन, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, रसिया जैसे बड़े देशों में मौज से पढ़ अपना उम्दा तकदीर जरुर गढ़ रहे है।

कांकेर के नक्सलगढ़ बियाबान जंगल से निकलकर सामने आयी इस सत्य घटना पर जब हम हीरामती से बातें करते है तो हीरामती हमारे जींस और शर्ट के सिल्वाटों को देखकर खुद को असहज महसूस करती है; और बड़ी मिन्नतों के बाद बड़े हिम्मत से अपना नाम और पढाई के बारे में चंद अल्फाज कहती है और कुछ सवालों के जवाब देने लिए उसके जुबा में अजीब सी खामोशी रह सिर्फ इशारों में अपनी भावनाओं का ज़िक्र करती है। ऐसे सच पर तो कुछ सवाल तो लाजमी है उन नेताओं और नौकरशाहों से जो अपने वातानुकूलित कमरे में बैठकर उनके तकदीर के आयाम गढ़ते है। साहब कभी फुर्सत मिले तो झाकं लेना इन बीहड़ों में भी वहां भी इंसान बसते है वरना ना जाने कितने ऐसी हीरामती व्यवस्था की मार से अनपढ़ रह जायेगी और आप उन्हें नक्सली करार कर दें और वह  गोली का शिकार जाये।         

प्रकाश ठाकुर के फेसबुक से साभार ।