(आलेख : बादल सरोज)
कहते हैं कि कई बार विशद विवरणों से ज्यादा सटीकता के साथ कुछ दृश्य असलियत बयाँ कर जाते हैं। 6 अप्रैल को हुआ भारतीय जनता पार्टी का 43वें स्थापना दिवस के समारोह का नजारा ऐसा ही था। यह उस पार्टी का स्थापना दिवस था, जो इन दिनों दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी पर शासन कर रही है। इसका लाइव किया, करवाया गया प्रसारण खुद बयान कर रहा था कि अब वह एक राजनीतिक पार्टी है ही नहीं । इस आयोजन का रूप-स्वरुप साफ़ साफ़ दिखा रहा था कि नाम भले वही हो, जो 1980 में इसकी स्थापना के समय रखा गया था - किन्तु अब यह उस वक़्त गठित पार्टी नहीं रही और "तेरे नाम पे शुरू, तेरे नाम पर ख़तम" व्यक्ति केंद्रित जमावडे में बदल कर रह गयी है ।
भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा ने मोदी, केवल मोदी, सिर्फ मोदी और एकमात्र मोदी भाषण से इसकी शुरुआत की। अपने कुल जमा 10 मिनट के भाषण में उन्होंने महज 5 सेकंड में श्यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर राजमाता सिंधिया तक 6 नेताओं का नाम गिनाने के बाद जो मोदी आराधना शुरू की, उसमें उन्होंने कभी मोदी जी, कभी आप, तो कभी प्रधानमंत्री कहकर कुल मिलाकर 27 बार 'मोदी नाम केवलम' का जाप किया। देश, दुनिया और पृथ्वी की शायद ही कोई समस्या बची होगी, जिसे हल करने का श्रेय उन्होंने अपने मोदी जी को न दिया हो। यह जताने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी गयी कि स्थापना दिवस भले 43 वां बताया गया, मगर बार-बार यह याद दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी कि असली स्थापना तो मोदी जी के पदार्पण के साथ 2014 में ही हुयी है।
इतिहास का सबक है कि जो इतिहास से डरते हैं, उनका इतिहासबोध ही ख़त्म हो जाता है। उन्हें खुद अपने अतीत से भी भय लगने लगता है। मोदी और उनकी भाजपा भी इसका अपवाद नहीं है। उनके वाले न्यू इंडिया में देश के इतिहास से केवल मुग़ल ही नहीं निबटाये जा रहे हैं, भाजपा के इतिहास से अटल भी हटाये जा रहे हैं। यूं तो इसकी शुरुआत अटल बिहारी वाजपेयी के जीते जी 2014 से ही अपने से पहले की 70 वर्षों के नकार, धिक्कार और तिरस्कार की झड़ी लगाकर खुद मोदी ही कर चुके थे -- बिना इस बात की परवाह किये कि इन 70 वर्षों में प्रधानमंत्री के रूप में वाजपेयी सरकार के 6 वर्षों के तीन कार्यकाल भी आते हैं। उनका कुनबा उन्हें 5-7 सौ साल में देश का पहला हिन्दू शासक बताकर अटल जी को अलग ही जमात में धकेल चुका था। 43वां स्थापना दिवस इससे भी आगे गया और आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी ही नहीं, 2014 में भाजपा की जीत के समय उसके अध्यक्ष रहे राजनाथ सिंह, उनके पूर्ववर्ती नितिन गडकरी और वेंकैया नायडू जैसों को भी इतिहास से विलोपित कर दिया। 1925 में बनी इनकी असली वाली पार्टी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का तो खैर जिक्र ही क्यों करते, भाजपा के पूर्वावतार - भारतीय जनसंघ - तक को भी आउट ऑफ सिलेबस कर दिया गया। नड्डा के 10 और स्वयं मोदी के 40 मिनट के भाषण का सार "आसमाँ पे है खुदा और जमीं पे हम" ही हम का था। हालांकि इसमें नया जैसा कुछ भी नहीं है। यह इस विचार कुटुंब की परम्परा है। जनसंघ के द्वितीय अध्यक्ष पंडित मौलिचंद्र शर्मा के जमाने से आज तक के जनसंघ-भाजपा का सार्वजनिक रिकॉर्ड बात का दस्तावेजी सबूत है कि इस पार्टी में जो भी शीर्ष पर रहा, जब तक रहा, तब तक उसे निर्विकल्प और देवत्वावतार बताया गया, मगर बाद में, उन्हीं के द्वारा, उतनी ही तीव्रता से दुत्कारा भी गया। पं श्यामाप्रसाद मुख़र्जी तथा पं दीनदयाल उपाध्याय अपने शीर्षकाल में दुर्भाग्यपूर्ण हादसों के शिकार हुए थे, इसलिये अपनों के हाथों इस तरह की अवनति से बच गए! बाकी कोई भी अपनों के ही हाथों साबुत सलामत नहीं बचा । मोदी और नड्डा भूल रहे हैं कि यह नियम कल उन पर भी लागू होने वाला है।
बहरहाल, 6 अप्रैल को जो लाइव दिख रही थी, वह नयी भाजपा है। 1980 में गांधीवादी समाजवाद के लक्ष्य को लेकर बनी भाजपा 1984 की हार के बाद गांधीवाद और समाजवाद दोनों का ही पिण्डदान करके दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद पर आ गयी थी -- अब उससे भी आगे बढ़कर एकमात्र मानव (मोदी) वाद तक जा पहुंची है। 6 अप्रैल को यह नजारा साफ़ था -- जब मोदी बोल रहे थे, तब तो पूरे परदे पर उन्हें होना ही होना था, मगर जब उनके अध्यक्ष नड्डा बोल रहे थे, तब भी पहली फ्रेम में मोदी ही थे। स्फिंक्स की तरह अविचल, स्थिर मुद्रा में अपनी प्रशंसा मुग्ध भाव से सुनते हुए। उनके बाद दिए अपने भाषण में उन्होंने "आजादी 1947 में नहीं, 2014 में मिलने वाली" तकरीबन वही बात दोहराई, जिसे उनके कुनबे की ट्विटर-फेम, जेड सिक्यूरिटी सुरक्षित कंगना राणावत पहले ही कह भी चुकी हैं और वापस भी ले चुकी हैं। इस बार खुद मोदी ने बताया कि 1947 के बाद की वर्षों में भी गुलामी की मानसिकता देश में बनी रही। आशय साफ़ था कि असली आजादी तो उनके आने के बाद ही आयी है। उनके आने के बाद ही काफी हद तक दूर किया जा सका गुलाम मानसिकता वाला भाव , बचे-खुचे को भाजपा के 50 साल पूरे होने तक कर लिया जायेगा।
यह कैसे होगा, इसे करके बताने के लिए वे भाषण के बाद पहली फुर्सत में जंगल सफारी में सवार, सफारी ड्रेस में तैयार शिकारी बनकर शेरों के बीच उनके मिशन टाईगर्स की 50 वी वर्षगांठ मनाने जा पहुंचे और अलग-अलग धजाओं में खिंचवाये-उतरवाए अपने ही फोटो से अपनी ही ट्विटर और इन्स्टाग्राम को भर दिया। मजेदार बात यह थी कि अपने 6 अप्रैल के भाषण में मोदी ने बादशाहत और बादशाहों के बारे में काफी कुछ बोलवचन कहे और टाईगर सफारी में अब तक के सारे राजाओं बादशाहों के आखेट पर्यटनों की अभिराम मुद्राओं के सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिये। यह उनकी ख़ास अदा है -- गोयबल्स की टैक्स्ट से उठाई-आजमाई हुयी अदा। यह अदा वे अपने चायवाले और फ़कीर होने के दावे में आजमा चुके हैं। यह फकीरी कितनी बेपनाह है, इसे दुनिया के सारे परिधानों और सज्जा विधानों का इस्तेमाल करने के बाद भी कायम रखकर दिखा चुके हैं। लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि वे भारत के ही नहीं, विश्व के इकलौते नेता हैं, जिन्होंने इतनी तरह के वस्त्र धारण किये, सो भी इस तरह कि जिन्हें एक बार पहन लिया, उन्हें दोबारा पहना ही नहीं। कुछ दिलजले टाइप के मोदी-ऑब्जर्वर्स का कहना है कि मिशन टाईगर्स तो बहाना था, शाहरुख़ खान की पठान का उधार उतारना था। इसे कितना उतारा और कितना चढ़ाया, यह बाद की बात है - उससे पहले की बात इस भाषा को पढने और उसके निहितार्थों को समझने की है।
जंगल सफारी में फोटो और उनके लिए बनाई गयी मुद्राओं पर चुटकी लेने वाले, स्थापना दिवस के समारोह में अपने अध्यक्ष के भाषण में भी बिना पलक झपकाए लगातार कैमरे में बने रहने के लिए उनका मखौल बनाने वाले भूल जाते हैं कि यह सिर्फ आत्ममुग्धता की पराकाष्ठा बताया जाने वाला, सभ्य समाज में नार्सिसिज्म के रूप में परिभाषित किये जाने वाला मनोरोग नहीं है। यह एक बड़े, बहुत बड़े देश, के सबसे प्रमुख पद पर बैठे व्यक्ति का सोच-समझ कर किया जाना वाला आचरण है। यह एकात्म आत्ममुग्ध मानव को महामानव के रूप में गढ़े और स्वीकार्य बनाए जाने की महा-परियोजना का हिस्सा है। यह सिर्फ 6 या 8 या 9 अप्रैल को हुआ मंचन नहीं है। इसे ठीक एक महीने पहले एक क्रिकेट मैच के दौरान अहमदाबाद के नरेंद्र मोदी स्टेडियम में नरेंद्र मोदी द्वारा नरेंद्र मोदी को नरेंद्र मोदी की तस्वीर भेंट कर सम्मानित करके पहले भी किया जा चुका है!! ऑस्ट्रेलिया सहित दुनिया के अनेक देशों के मीडिया द्वारा इसका मजाक उड़ाए जाने के बाद भी बिना किसी की परवाह किये इसे लगातार, बिना किसी व्यवधान के किया जा रहा है। इसे सिर्फ मसखरी या प्रचार लिप्सा कह कर बिलकुल नहीं टाला जा सकता - इसलिए कि यह किसी सामान्य व्यक्ति की निजी विकृति नहीं है, यह सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति के नायकत्व को उसकी अति-पौरुषेय माचो इमेज बनाकर एक अधिनायक में बदल देने की प्रवृत्ति है ; यह तानाशाही के विषाणुओं को उनके अधिकतम स्तर तक पहुंचाना और उन्हें लाइलाज बनाने की प्रवृत्ति है। दुनिया भर में तानाशाहियों और उनके भी बर्बरतम रूप फासिज्म की वायरोलोजी की क्रोनोलोजी ऐसी ही रही है। इधर जहां 'मोदी ही भारत हैं - भारत ही मोदी है' के एकल गान में 'अडानी ही भारत है - भारत ही अडानी है' की जुगलबंदी पहले से ही है, जिसके बैकग्राउंड संगीत में 'मनु ही भारत है - भारत ही मनु है' का स्थायी ठाठ है - वहां यह प्रवृत्ति और सांघातिक हो जाती है। रसायन शास्त्र - केमिस्ट्री - की भाषा में बोले, तो यह सिर्फ लोकतंत्र की जड़ों को सुखाने वाला अम्ल - एसिड - ही नहीं रहती, अम्लराज - एक्वारेजिया - बन जाती है । खतरे और ज्यादा गंभीर हो जाते है, जब संसदीय लोकतंत्र सहित हर तरह के लोकतंत्र में चौबीस घंटा सातों दिन अम्लराज उड़ेलने वालों के द्वारा, यह सब करते हुए भारत को लोकतंत्र की मां - मदर ऑफ डेमोक्रेसी - बताने की गुहार मचाई जाती है।
इसलिए ऐसे सारे ठठकर्मों का मजाक उड़ाकर उन्हें खारिज करने की सहूलियत से आगे बढना होगा। कैसे बढ़ा जा सकता है, किस तरह बढ़ा जाना चाहिए, इसका उदाहरण 5 अप्रैल को दिल्ली में हुयी किसान-खेत मजदूर और मजदूरों की रैली अपनी विराट लामबंदी और उसके पहले 7 महीने तक चले अभियान के जरिये करके दिखा चुकी है ।