व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा
मोदी जी के विरोधियों के एंटी-नेशनल होने का अब और क्या सबूत चाहिए! मोदी जी को विश्व शांति के लिए नोबेल पुरस्कार मिलते-मिलते रह गया। अब मोदी जी नोबेल सम्मानित हो जाते, तो क्या सिर्फ मोदी जी की ही शान बढ़ती? भारत की भी तो शान में चार-चांद लग जाते। पर नहीं लग पाए। वर्ना नोबेल कमेटी वाले एस्ले तोजो साहब तो बाकायदा चल कर यहां तक आए थे, मोदी जी की प्रजा को इसकी खुशखबरी देने के लिए। बेचारे ने कुछ गोदी मीडिया भाईयों के कान में तो कूक कर बता भी दिया था। अमृतकाल में नये इंडिया को पुरस्कार पर पुरस्कार उठाने थे। उधर, ऑस्कर। इधर नोबेल। साल भर जी-20। नये इंडिया के डंके ही डंके, बल्कि मंदिर वाले घंटे ही घंटे। सब अच्छा ही अच्छा होना था। नोबेल वालों का भी गांधी जी को पुरस्कार न दे पाने का कलंक मिट जाता। भारत के इतिहास की तरह, नोबेल पुरस्कारों का भी इतिहास दुरुस्त हो जाता। एक गुजराती को न सही, दूसरे गुजराती को सही, पर किसी गुजराती को तो शांति का नोबेल मिल जाता।
पर ये हो ना सका। विरोधियों ने भांजी मार दी। पता नहीं इन एंटी-नेशनलों ने बेचारे नोबेल कमेटी के डिप्टी के कान में क्या मंतर फूंका कि पट्ठा भारत से पलटते-पलटते, मोदी जी के नोबेल के आइडिया से ही पलट गया। उल्टे मोदी के नोबेल सम्मान की खुशखबरी देशवासियों को सुनाने वाले गोदी मीडिया भाईयों को ही झूठा बना दिया। कह दिया -- ये तो बिल्कुल ही फेक न्यूज है। किसी नोबेल-वोबेल का जिक्र मैंने तो कभी नहीं किया। वैसे भी विश्व शांति के लिए नोबेल, भला इसकी बात ही कहां से आ गयी। बाकी छोड़ भी दें तो, दो-चार घंटे के लिए यूक्रेन-रूस युद्ध रुकवाने की बात तक आखिर में फेक न्यूज निकली। खुद जयशंकर जी के विदेश मंत्रालय तक ने लिखा-पढ़ी में इसे फेक न्यूज बताया था। फिर भी नोबेल की आस!
पर मोदी जी के नोबेल में भांजी मारने तक ही बात रहती, तब तो मोदी जी फिर भी माफ कर देते। पर ये एंटी-नेशनल तो मोदी जी का विरोध करते-करते, उनके गुजरात को भी बदनाम करने तक चले गए हैं। हिंडनबर्ग के बहाने से अडानी घोटाला-अडानी घोटाला तो पहले ही कर रहे थे। अब किरण पटेल के मामले को खामखां में तूल देकर, ग से गुजरात और घ से घोटाला ही पढ़ाने पर तुले हैं। माना कि किरण जे पटेल ने गलती की है। किरण जे पटेल ने, गुजराती होकर भी एक और गुजराती के राज में गलती की है। किरण जे पटेल ने एक गुजराती पीएम के पीएमओ का विशेष दूत होने का स्वांग भरने की गलती की है। किरण जे पटेल ने पीएमओ का विशेष दूत होने का स्वांग, ऐन कश्मीर में भरने की गलती की है। लेकिन, उसने की सिर्फ गलती है, एक बचकानी सी गलती।
अब यह बचपना नहीं तो और क्या था कि कश्मीर की सैर का अपना शौक पूरा करने के लिए, बंदे ने जैड प्लस सुरक्षा का बंदोबस्त करा लिया। बंदा घुटने-घुटने बर्फ में टहलने निकले, तो आजू-बाजू गनमैन। बंदा श्रीनगर के लाल चौक पर फोटो खिंचाए, तो आजू-बाजू गनमैन। बंदा कहीं भी आए-जाए, तो सरकारी बख्तरबंद गाड़ी में। ठहरे तो सरकारी मेहमान बनकर पांच सितारा होटल में। और कश्मीर की सैर का शौक इतना जबर्दस्त कि बंदा एक-दो बार से संतुष्ट नहीं हुआ, बार-बार कश्मीर की सैर के लिए जाता रहा। तब तक जाता रहा, जब तक कि सरकार ने ताड़ नहीं लिया कि बंदा न तो जैड प्लस सुरक्षा का हकदार है और न उसे जैड प्लस सुरक्षा देने का कोई फायदा है। एक्स्ट्रा नरमी दिखाना तो दूर, इस शाकाहारी-सी गलती के लिए सरकार ने उसे गिरफ्तार भी करा दिया। तब मोदी विरोधी नाहक इसे तिल का ताड़ बनाने की कोशिश क्यों कर रहे हैं? न किसी ने कोई फर्जीवाड़ा किया है और न पीएमओ से इसका कोई कनैक्शन है। सब कुछ के बावजूद, था यह एक मामूली प्रैंक यानी फिरकी लेने का ही मामला। पुलवामा मामले की तरह, एक बार फिर सुरक्षा चूक या सुरक्षा खतरे का विपक्ष वालों का शोर एकदम फालतू बात है। कश्मीर में सुरक्षा चूकें होती थीं, नेहरू-गांधी सरनेम वालों के जमाने में। यह मोदी जी का जमाना है। जब कश्मीर में धारा-370 तक नहीं रही, फिर कोई सुरक्षा खतरा, सुरक्षा चूक कैसे बची रह सकती है।
वैसे भी जब बंदा पक्की देशभक्त पार्टी का बाकायदा मेंबर हो, वह फर्जीवाड़ा चाहे लाख कर ले, लाख ठगी कर ले, उससे देश की सुरक्षा के लिए कोई खतरा नहीं हो सकता है। उल्टे पटेल तो इतना पक्का देशभक्त निकला कि सैर-सपाटे के बीच से टैम निकालकर, हर बार सरकारी अधिकारियों के साथ मीटिंगें कर के, सुरक्षा इंतजामात को चाक-चौबंद भी कराता था और अग्रिम चौकियों का दौरा कर, सुरक्षा बंदोबस्तों को ठोक-बजाकर खुद परखकर भी आता था। और सब मुफ्त तथा स्वत:प्रेरणा से। हम तो कह रहे हैं कि उसकी जो रिपोर्टें पीएमओ तक नहीं पहुंचीं, उन्हें असली पीएमओ अगर मंगवा ले और उनका गंभीरता से अध्ययन करवा ले, तो जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा और पुख्ता करने में, ऐसी रिपोर्टों से काफी मदद भी मिल सकती है। असामान्य समस्याओं के उपाय, बहुत बार लीक से हटकर चलने से ही मिलते हैं! फिर भी किरण भाई ने भी नहीं सोचा होगा कि उसके नटवारलाल बनने के किस्से पढ़-सुनकर, बाहर वाले उसके मोदी जी के इंडिया पर हंसेंगे। सच पूछिए तो पकड़े जाने की मिस्टेक तो वह भी मानता है और इसके लिए सजा भुगतने के लिए भी तैयार है। आखिर वह पटेल है, नेहरू-गांधी नहीं, जो माफी तक मांगने के लिए तैयार हैं; भले ही इनके चक्कर में बेचारी संसद हफ्ते भर से जहां-की-तहां रुकी खड़ी है। इन विरोधियों से डैमोक्रेसी की चिंता से बातें इतनी बड़ी-बड़ी करा लो, पर करने के नाम पर एक माफी मांगकर, संसद की रुकी हुई गाड़ी चलवा कर देने तक को तैयार नहीं होंगे।
और नड्डा जी ने एकदम सही कहा, यह एंटीनेशनल टूलकिट का हिस्सा है। टूलकिट ये है कि माफी के इंतजार में संसद जब तक रुकी रहेगी, परदेस में देश की बदनामी चालू रहेगी। माफी की मांग करने वाले, माफी शब्द के बिना और कुछ नहीं सुनेंगे, तो संसद में सिर्फ शोर सुनाई देगा और देश की बदनामी चालू रहेगी। रुकी हुई संसद बाहर वालों को शोर भी ज्यादा देर क्यों सुनने देगी और म्यूट हो जाएगी और परदेस में देश की बदनामी चालू रहेगी। और नोबेल समिति भी बार-बार यूं ही रास्ता बदलती रहेगी।